मलिका-ऐ-हुस्न ..
क्या कहूँ मै तुम्हारे लिए ..
जन्नत की हुर ,
आँखों का नूर ,
या फिर चाँद से
धीरे धीरे पिघलती हुवी रौशनी ..
या मेरे दिल कि झील में
हलके से उतरता सावन ..
या कहु मै तुम्हे
फूलों के रस का निचोड
या फिर कहूँ शबनम कि पाक बुंद
जो मेरे आंखो कि ठंडक है
या फिर एक प्यासे कि प्यास ...!
ऐ हुस्न की मलिका
तुम्हे पाना मेरे बस में नहीं
बस तू रौशनी होकर
गुजर जा मेरी रूह से और कर दे मुझे रौशन
ताकि दुनिया को मै बता तो सकू के तुने मुझे 'छु ' लिया है ॥
साजिद शेख
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